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मताअ-ओ-माल न दे दौलत-ए-तबाही दे - अक़ील शादाब कविता - Darsaal

मताअ-ओ-माल न दे दौलत-ए-तबाही दे

मताअ-ओ-माल न दे दौलत-ए-तबाही दे

मुझे भी मुम्लिकत-ए-ग़म की बादशाही दे

खड़ा हुआ हूँ मैं दस्त-ए-तलब दराज़ किए

न मेरे सर को यूँ इल्ज़ाम-ए-कज-कुलाही दे

मैं अपने आप को किस तरह संगसार करूँ

मिरे ख़िलाफ़ मिरा दिल अगर गवाही दे

मैं ठहरे पानी की मानिंद क़ैद हूँ ख़ुद में

कोई नशेब की जानिब मुझे बहा ही दे

मिरे दिनों को जवाँ जिस्म का उजाला दे

मिरी शबों को घनी ज़ुल्फ़ की सियाही दे

कभी तो लज़्ज़त-ए-काम-ओ-दहन दो-बाला कर

हम ऐसे फ़ाक़ा-कशों को भी मुर्ग़-ओ-माही दे

हर एक दौर के सुक़रात का ये विर्सा है

मुझे भी ला मिरी ज़हराब की सुराही दे

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