इस मरीज़-ए-ग़म-ए-ग़ुर्बत को सँभाला दे दो

इस मरीज़-ए-ग़म-ए-ग़ुर्बत को सँभाला दे दो

ज़ेहन-ए-तारीक को यादों का उजाला दे दो

हम हैं वो लोग कि बेक़ौम वतन कहलाए

हम को जीने के लिए कोई हवाला दे दो

मैं भी सच कहता हूँ इस जुर्म में दुनिया वालो

मेरे हाथों में भी इक ज़हर का पियाला दे दो

अब भी कुछ लोग मोहब्बत पे यक़ीं रखते हैं

हो जो मुमकिन तो उन्हें देस निकाला दे दो

वो निराले हैं करो ज़िक्र तुम उन का 'दानिश'

अपनी ग़ज़लों को भी अंदाज़ निराला दे दो

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