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सुकून-ए-दिल न मयस्सर हुआ ज़माने में - अनवापुल हसन अनवार कविता - Darsaal

सुकून-ए-दिल न मयस्सर हुआ ज़माने में

सुकून-ए-दिल न मयस्सर हुआ ज़माने में

न याद रखने में तुम को न भूल जाने में

हमेशा वुसअ'त-ए-अफ़्लाक में रहा है ग़म

कहाँ क़याम है शाहीं का आशियाने में

उरूज-ए-तीरगी-ए-शब से हो सहर पैदा

यही निज़ाम है दुनिया के कार-ख़ाने में

शफ़क़ के ख़ून की सुर्ख़ी भी हो गई शामिल

सहर-ब-दोश सितारों के झिलमिलाने में

अभी बहार का कुछ और इंतिज़ार करो

कि थोड़ी देर है कलियों के मुस्कुराने में

ये वो मता-ए-गिराँ है जो मिल नहीं सकती

सुकून-ए-दिल की तमन्ना न कर ज़माने में

कभी क़रार दिल-ए-बे-क़रार को भी मिले

इलाही कौन कमी है तिरे ख़ज़ाने में

किसी से कुछ भी शिकायत करूँ तो क्या हासिल

मिला न कोई वफ़ा-आश्ना ज़माने में

गुलों की बज़्म ही रंगीनियाँ ब-दोश नहीं

हर एक नक़्श हसीं है निगार-ख़ाने में

में रौंदता हुआ काँटों को यूँ गुज़रता हूँ

कि रह-रवों को सुहूलत हो आने जाने में

वो एक तुम हो कि तुम को किसी ने कुछ न कहा

वो एक हम हैं कि रुस्वा हुए ज़माने में

तिरे ख़याल से आती नहीं जो लब पे मिरे

वही तो काम की इक बात थी फ़साने में

वो इज़्तिराब-ए-मुसलसल का लुत्फ़ क्या जाने

मुसीबतों से जो घबरा गया ज़माने में

कुछ अंदलीब का ख़ून जिगर भी है शामिल

गुलों की बज़्म की रंगीनियाँ बढ़ाने में

हमीं तो लज़्ज़त-ए-आज़ार के नहीं ख़ूगर

उन्हें भी लुत्फ़ सा आता है कुछ सताने में

क़ुसूर उन की निगाहों की शोख़ियों का भी है

हमारी जुर्रत-ए-शौक़-ओ-तलब बढ़ाने में

रहेगा मुद्दतों चर्चा मिरा ज़बानों पर

किसी की बज़्म से 'अनवार' उठ के जाने में

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