हुस्न हर रंग में मख़्सूस कशिश रखता है
हुस्न हर रंग में मख़्सूस कशिश रखता है
वो तबस्सुम की अदा हो कि सितम-कोशी हो
ज़िंदगी कैफ़-ए-मुसलसल में गुज़र जाती है
चश्म-ए-मख़मूर की मस्ती हो कि मय-नोशी हो
तेरे आने की मसर्रत से सहर हो रौशन
और रातों की तिरे ग़म में सियह-पोशी हो
जाज़बिय्यत तो ब-हर-हाल हुआ करती है
हुस्न की बू-क़लामूनी हो कि ख़ुश-पोशी हो
कोई आलम हो नजात-ए-ग़म-ए-दौराँ के लिए
मौत हो नींद हो बे-होशी हो
शुक्र 'अनवार' जफ़ाओं पे न क्यूँकर कीजिए
क्यूँकि शिकवा हो तो एहसान-फ़रामोशी हो
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