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अब तिरे हिज्र में यूँ उम्र बसर होती है - अनवापुल हसन अनवार कविता - Darsaal

अब तिरे हिज्र में यूँ उम्र बसर होती है

अब तिरे हिज्र में यूँ उम्र बसर होती है

शाम होती है तो रो रो के सहर होती है

क्यूँ सर-ए-शाम उमीदों के दिए बुझने लगे

कितनी वीरान तिरी राहगुज़र होती है

बे-ख़याली में भी फिर उन का ख़याल आता है

वही तस्वीर मिरे पेश-ए-नज़र होती है

ये अवध है कि जहाँ शाम कभी ख़त्म नहीं

वो बनारस है जहाँ रोज़ सहर होती है

अपने बर्बाद नशेमन को भुला देता हूँ

जब सुलगते हुए गुलशन पे नज़र होती है

बर्क़ गिरती है तो ख़िर्मन को जला जाती है

कब उसे मेहनत-ए-दहक़ाँ की ख़बर होती है

हाए फूलों के मुक़द्दर पे भी दिल रोता है

ज़िंदगी उन की भी काँटों में बसर होती है

आरिज़-ए-ग़ुन्चा-ओ-गुल और दहक उठते हैं

अश्क-ए-शबनम में भी तासीर-ए-शरर होती है

मैं वो महरूम-ए-मोहब्बत हूँ कि 'अनवार' मिरी

जो दुआ है वही महरूम-ए-असर होती है

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