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मज़ा देता है याद आ कर तिरा बिस्मिल बना देना - अनवरी जहाँ बेगम हिजाब कविता - Darsaal

मज़ा देता है याद आ कर तिरा बिस्मिल बना देना

मज़ा देता है याद आ कर तिरा बिस्मिल बना देना

लगा देना ज़रा तीर-ए-नज़र हाँ फिर लगा देना

वो मेरा बे-ख़ुदी में उस के मुँह से मुँह मिला देना

क़यामत एक चुप का फिर वो दोनों को सज़ा देना

अदा-ए-शर्म हो ख़ल्वत में या अंदाज़ शोख़ी के

तिरे हर नाज़ पर हम को तो जाँ ऐ दिलरुबा देना

हमारा आरज़ू-ए-बोसा करना तुझ से दर-पर्दा

तिरा दुश्नाम देना और क्या क्या बरमला देना

सिफ़ारिश हम-दमों की उन का जाते वक़्त ये कहना

कि जब तड़पे मिरी तस्वीर सीने से लगा देना

न होने पाए वाक़िफ़ लज़्ज़त-ए-ता'ज़ीर से दुश्मन

मज़ाहिर चंद हो उस की मगर हम को सज़ा देना

उधर उस लब से निकला शोख़ चितवन को न देना दिल

उधर चश्म-ए-सुख़न-गो ने इशारों में कहा देना

लबों से लब मिला लें वस्ल में सीने से या सीना

मगर मुमकिन नहीं उस बुत के दिल से दिल मिला देना

अगर अहद-ए-वफ़ा से तू भी फिर जाए मोहब्बत में

'हिजाब' उस शोख़ को मालूम हो जाए दग़ा देना

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