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कहाँ मुमकिन है पोशीदा ग़म-ए-दिल का असर होना - अनवरी जहाँ बेगम हिजाब कविता - Darsaal

कहाँ मुमकिन है पोशीदा ग़म-ए-दिल का असर होना

कहाँ मुमकिन है पोशीदा ग़म-ए-दिल का असर होना

लबों का ख़ुश्क हो जाना भी है आँखों का तर होना

ग़ज़ब मिल कर जुदा मुझ से तिरा ओ फ़ित्ना-गर होना

सितम नालों का पुर-तासीर हो कर बे-असर होना

जिगर में दर्द लब पर नाला-ए-वहशत असर होना

अयाँ करता है इक रश्क-ए-परी का दिल में घर होना

ग़ज़ब नाला-कशी इक साहिब-ए-इ'स्मत के कूचे में

सितम ऐ दिल किसी पर्दा-नशीं का पर्दा-दर होना

वो उन का चुपके चुपके मुस्कुराना ख़ून रोने पर

वो मेरा दिल ही दिल में वासिफ़-ए-रंग-ए-असर होना

जो तन्हा पास मंज़िल दिल को शायाँ है मोहब्बत में

तो आँखों को है लाज़िम दीदा-ए-हसरत-नगर होना

क़यामत था सितम था क़हर था ख़ल्वत में ओ ज़ालिम

वो शरमा कर तिरा मेरी बग़ल में जल्वा-गर होना

सितम की जौर की बेदाद की काफ़ी शहादत है

जुदाई में मिरा बेताब बे-ख़ुद बे-ख़बर होना

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