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पियो कि मा-हसल-ए-होश किस ने देखा है - अनवर शऊर कविता - Darsaal

पियो कि मा-हसल-ए-होश किस ने देखा है

पियो कि मा-हसल-ए-होश किस ने देखा है

तमाम वहम-ओ-गुमाँ है तमाम धोका है

न क्यूँ हो साहिब-ए-जाम-ए-जहाँ-नुमा को हसद

शराब से मुझे अपना सुराग़ मिलता है

किसी ने ख़्वाब के रेज़े पलक पलक चुन कर

जो शाहकार बनाया है टूट सकता है

मैं इंतिज़ार करूँगा अगर मिरी फ़रियाद

अभी सुकूत-ब-गुलशन, सदा-ब-सहरा है

यही सवाब है क्या कम मिरी रियाज़त का

कि एक ख़ल्क़ तिरे नाम से शनासा है

ज़हे-नसीब कि उस को मिरा ख़याल आया

मगर ये बात हक़ीक़त नहीं तमन्ना है

गुनाहगार हूँ ऐ मादर-ए-अदम मुझ को

बिलक बिलक के तिरे बाज़ुओं में रोना है

ख़मीर एक है सब का तो ऐ ज़मीन ऐ माँ

ज़बान-ओ-मज़हब-ओ-क़ौम-ओ-वतन ये सब क्या है

ग़लत सही मगर आसाँ नहीं कि ये नुक्ता

किसी हकीम ने अपने लहू से लिक्खा है

पयम्बरों को उतारा गया था क़ौमों पर

ख़ुदा ने मुझ पे मगर क़ौम को उतारा है

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