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मुश्ताक़ ब-दस्तूर ज़माना है तुम्हारा - अनवर शऊर कविता - Darsaal

मुश्ताक़ ब-दस्तूर ज़माना है तुम्हारा

मुश्ताक़ ब-दस्तूर ज़माना है तुम्हारा

आने से बड़ा खेल न आना है तुम्हारा

लैला की हिकायत भी हिकायत है तुम्हारी

शीरीं का फ़साना भी फ़साना है तुम्हारा

इस दिल की ख़बर तुम से ज़ियादा किसे होगी

बरताव मगर बे-ख़बराना है तुम्हारा

तुम हुस्न-ए-मुजस्सम हो बिला शिरकत-ए-ग़ैरे

ना-क़ाबिल-ए-तक़्सीम ख़ज़ाना है तुम्हारा

दिल में कोई आ जाए तो वापस नहीं जाता

दुश्वार यहाँ से कहीं जाना है तुम्हारा

तुम से मुताअस्सिर हैं नए हों कि पुराने

उस्लूब नया है कि पुराना है तुम्हारा

क्यूँ रौशनी-ओ-रंग से मामूर न हो दिल

सुनसान सही आइना-ख़ाना है तुम्हारा

समझाया बुझाया न करो दिल को 'शुऊर' अब

कम-बख़्त ने कहना कभी माना है तुम्हारा

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