मैं ख़ाक हूँ आब हूँ हवा हूँ
मैं ख़ाक हूँ आब हूँ हवा हूँ
और आग की तरह जल रहा हूँ
तह-ख़ाना-ए-ज़ेहन में न जाने
क्या शय है जिसे टटोलता हूँ
बहरूप नहीं भरा है मैं ने
जैसा भी हूँ सामने खड़ा हूँ
सुनता तो सभी की हूँ मगर मैं
करता हूँ वही जो चाहता हूँ
अच्छों को तो सब ही चाहते हैं
है कोई कि मैं बहुत बुरा हूँ
पाता हूँ उसे भी अपनी जानिब
मुड़ कर जो किसी को देखता हूँ
बचना है मुहाल इस मरज़ में
जीने के मरज़ में मुब्तला हूँ
सुनता ही न हो कोई तो क्यूँ मैं
चिल्लाऊँ फ़ुग़ाँ करूँ कराहूँ
औरों से तो इज्तिनाब था ही
अब अपने वजूद से ख़फ़ा हूँ
बाक़ी हैं जो चंद रोज़ वो भी
तक़दीर के नाम लिख रहा हूँ
लिखता हूँ हर एक बात सुन कर
ये बात तो मैं भी कह चुका हूँ
(912) Peoples Rate This