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कुछ दिनों अपने घर रहा हूँ मैं - अनवर शऊर कविता - Darsaal

कुछ दिनों अपने घर रहा हूँ मैं

कुछ दिनों अपने घर रहा हूँ मैं

और फिर दर-ब-दर रहा हूँ मैं

दूसरों की ख़बर तो क्या लेता

ख़ुद से भी बे-ख़बर रहा हूँ मैं

वक़्त गो हम-सफ़र न था मेरा

वक़्त का हम-सफ़र रहा हूँ मैं

ज़ीना-ए-ज़ात का सफ़र और रात

धीरे धीरे उतर रहा हूँ मैं

यक-ब-यक किस तरह बदल जाऊँ

रफ़्ता रफ़्ता सुधर रहा हूँ मैं

तू भी देखे तो अजनबी जाने

अब के वो स्वाँग भर रहा हूँ मैं

बे-हक़ीक़त है शोर-ए-शहर कि अब

गुनगुनाता गुज़र रहा हूँ मैं

आग है और सुलग रही है हयात

राख हूँ और बिखर रहा हूँ मैं

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