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बशारत हो कि अब मुझ सा कोई पागल न आएगा - अनवर शऊर कविता - Darsaal

बशारत हो कि अब मुझ सा कोई पागल न आएगा

बशारत हो कि अब मुझ सा कोई पागल न आएगा

ये दौर-ए-आख़िर-ए-दीवानगी है बीत जाएगा

किसी की ज़िंदगी ज़ाएअ' न होगी अब मोहब्बत में

कोई धोका न देगा अब कोई धोका न खाएगा

न अब उतरेगा क़ुदसी कोई इंसानों की बस्ती पर

न अब जंगल में चरवाहा कोई भेड़ें चराएगा

गिरोह-ए-इब्न-ए-आदम लाख भटके लाख सर पटके

अब इस अंदर से कोई रास्ता बाहर न जाएगा

बशर को देख कर बे-इंतिहा अफ़्सोस आता है

न मा'लूम इस ख़राबाती को किस दिन होश आएगा

मिटा भी दे मुझे अब ऐ मुसव्विर! ता-ब-कै आख़िर

बनाएगा बिगाड़ेगा बिगाड़ेगा बनाएगा

मोहब्बत भी कहीं ऐ दोस्त! तरदीदों से छुपती है

किसे क़ाएल करेगा तू किसे बावर कराएगा

ग़नीमत जान अगर दो बोल भी कानों में पड़ जाएँ

कि फिर ये बोलने वाला न रोएगा न गाएगा

'शुऊर' आख़िर उसे हम से ज़ियादा जानते हो तुम?

बहुत सीधा सही लेकिन तुम्हें तो बेच खाएगा

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