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अकेले क्या पस-ए-दीवार-ओ-दर गए हम तुम - अनवर शऊर कविता - Darsaal

अकेले क्या पस-ए-दीवार-ओ-दर गए हम तुम

अकेले क्या पस-ए-दीवार-ओ-दर गए हम तुम

सगान-ए-ख़ुफ़्ता को होश्यार कर गए हम तुम

क़दम क़दम पे अजब बे-हया निगाहों का

हिसार सा नज़र आया जिधर गए हम तुम

गुलों ने ख़ूब पज़ीराई की कि भूले से

किसी चमन में न बार-ए-दिगर गए हम तुम

उमीद-ए-वस्ल के दिन कट गए भटकने में

न होटलों पे यक़ीं था न घर गए हम तुम

हवा-ए-दहर ने सहमा रखा था किस दर्जा

किवाड़ भी कहीं खड़का तो डर गए हम तुम

फ़लक की धुन थी मगर फ़र्श पर हमारे पाँव

जमे न थे कि ख़ला में बिखर गए हम तुम

ज़हे ये हिम्मत-ए-परवाज़ भी मगर अब तो

नशेब में कई ज़ीने उतर गए हम तुम

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