अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का
अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का
न कोई शक्ल है उस की न कोई नाम उस का
वही ख़ुदा कभी मिलवाएगा हमें उस से
जो इंतिज़ार कराता है सुब्ह ओ शाम उस का
हमारे साथ नहीं जा सका था वो लेकिन
रहा ख़याल सियाहत में गाम गाम उस का
ख़ुदा को प्यार है अपने हर एक बंदे से
सफ़ेद-फ़ाम है उस का सियाह-फ़ाम उस का
कमा के देते हैं जो माल वो अमीरों को
हिसाब क्यूँ नहीं लेते कभी अवाम उस का
हमारा फ़र्ज़ है बे-लाग राय का इज़हार
कोई दुरुस्त कहे या ग़लत ये काम उस का
कहाँ है शैख़ को सुध-बुध मज़ीद पीने की
नशा उतार गए तीन चार जाम उस का
ज़बान-ए-दिल से कोई शाइ'री सुनाता है
तो सामईन भुलाते नहीं कलाम उस का
'शुऊर' सब से अलग बैठता है महफ़िल में
इसी से आप समझ लीजिए मक़ाम उस का
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