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अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का - अनवर शऊर कविता - Darsaal

अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का

अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का

न कोई शक्ल है उस की न कोई नाम उस का

वही ख़ुदा कभी मिलवाएगा हमें उस से

जो इंतिज़ार कराता है सुब्ह ओ शाम उस का

हमारे साथ नहीं जा सका था वो लेकिन

रहा ख़याल सियाहत में गाम गाम उस का

ख़ुदा को प्यार है अपने हर एक बंदे से

सफ़ेद-फ़ाम है उस का सियाह-फ़ाम उस का

कमा के देते हैं जो माल वो अमीरों को

हिसाब क्यूँ नहीं लेते कभी अवाम उस का

हमारा फ़र्ज़ है बे-लाग राय का इज़हार

कोई दुरुस्त कहे या ग़लत ये काम उस का

कहाँ है शैख़ को सुध-बुध मज़ीद पीने की

नशा उतार गए तीन चार जाम उस का

ज़बान-ए-दिल से कोई शाइ'री सुनाता है

तो सामईन भुलाते नहीं कलाम उस का

'शुऊर' सब से अलग बैठता है महफ़िल में

इसी से आप समझ लीजिए मक़ाम उस का

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