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लेकिन - अनवर सेन रॉय कविता - Darsaal

लेकिन

अब ख़ुदा को भी ज़रा आराम करना चाहिए

इक ज़माने से मुसलसल कर रहा है

तीन शिफ़्टें

और दुनिया-भर के त्यौहाराें पे भी

मिल नहीं पाई कभी रुख़्सत उसे

हफ़्ता-वारी यानी वो जो दा एण्ड पे एक छुट्टी

सारी दुनिया में ही दी जाती है अब

उस की वो छुट्टी अज़ल से बंद है

सैंकड़ों बीमारियों में

काम करते ही उसे पाया है मैं ने

न तो बेटा है किसी का और न बाप

कोई रिश्ते-दार भी उस का नहीं

लव-अफ़ेयर या किसी शादी का कोई ज़िक्र भी आया नहीं

फिर भी उस को एक ख़िल्क़त

एक बाप

पर ये ऐसा बाप है

बेटे को मस्लूब होने से बचा पाया नहीं

न तो आता है न जाता है कहीं

इस लिए सालाना रुख़्सत भी नहीं मिलती उसे

यूँ भी बूढ़ा हो चुका है

काम उस से ले लिए जाएँ तो इक दिन

बोरीयत के बोझ में दब कर कहीं मर जाएगा

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