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वो पर्दे से निकल कर सामने जब बे-हिजाब आया - अनवर सहारनपुरी कविता - Darsaal

वो पर्दे से निकल कर सामने जब बे-हिजाब आया

वो पर्दे से निकल कर सामने जब बे-हिजाब आया

जहान-ए-इश्क़ में यक-बारगी इक इंक़लाब आया

ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे से नुमायाँ हो गए जल्वे

सर-ए-गुलज़ार वो रश्क-ए-क़मर जब बे-हिजाब आया

मुकर्रर ज़िंदगानी का मज़ा हो जाएगा हासिल

दम-ए-आख़िर भी क़ासिद ले के गुर ख़त का जवाब आया

मुक़द्दर से मिरे दोनों के दोनों बेवफ़ा निकले

न उम्र-ए-बेवफ़ा पलटी न फिर जा कर शबाब आया

वफ़ूर-ए-शर्म से उस आफ़्ताब-ए-हुस्न के आगे

जहाँ का हर हसीं डाले हुए मुँह पर नक़ाब आया

दिल-ए-बेताब-ओ-ताक़त को तसल्ली कुछ हुई हासिल

पयाम उस बुत के आने का जो वक़्त-ए-इज़्तिराब आया

अजब पुर-कैफ़ आलम है ज़माना मस्त है 'अनवर'

कि उन के चौदहवीं मन में नज़र रंग-ए-शराब आया

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