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जल्वे दिखाए यार ने अपनी हरीम-ए-नाज़ में - अनवर सहारनपुरी कविता - Darsaal

जल्वे दिखाए यार ने अपनी हरीम-ए-नाज़ में

जल्वे दिखाए यार ने अपनी हरीम-ए-नाज़ में

सज्दे चमक चमक उठे मेरे सर-ए-नियाज़ में

जल्वा-ए-दीद में तिरी शोला-ए-तूर था निहाँ

आग सी और लग गई मेरे दिल-ए-गुदाज़ में

शौक़ ने खीच ली मिरे यार की जब नक़ाब-ए-रुख़

हुस्न की रौशनी हुई जल्वा-गह-ए-मजाज़ में

इश्क़ की बे-हिजाबियाँ हुस्न की पर्दा-दारियाँ

होने लगी तलाशियाँ नाज़ में और नियाज़ में

दिल में लिया अदाओं ने सब्र-ओ-क़रार भी लिया

लुट गया घर भरा हुआ जुम्बिश-ए-चश्म-ए-नाज़ में

मेरी नज़र के मिलते ही उन की निगाह झुक गई

दिल को जवाब मिल गया चश्म-ए-फुसूँ-तराज़ में

सेहर वो ही कशिश वो ही मस्ती-ओ-बे-ख़ुदी वो ही

तेरी नज़र समा गई नर्गिस-ए-नीम-बाज़ में

पाँव फ़िगार में तो हों दिल तो नहीं फ़िगार-ए-ग़म

कोई सनम नहीं न हो दश्त-ए-जुनूँ-नवाज़ में

जल्वा-ए-यार देख कर तूर पे ग़श हुए कलीम

अक़्ल-ओ-ख़िरद का काम क्या महफ़िल-ए-हुस्न-ओ-नाज़ में

कर ले ख़ुदा की बंदगी 'अनवर'-ए-ख़स्ता-दिल ज़रा

भूल न अपने रब को तू नफ़्स की हिर्स-ओ-आज़ में

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