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जब फ़स्ल-ए-बहाराँ आती है शादाब गुलिस्ताँ होते हैं - अनवर सहारनपुरी कविता - Darsaal

जब फ़स्ल-ए-बहाराँ आती है शादाब गुलिस्ताँ होते हैं

जब फ़स्ल-ए-बहाराँ आती है शादाब गुलिस्ताँ होते हैं

तकमील-ए-जुनूँ भी होती है और चाक गरेबाँ होते हैं

पुर-कैफ़ फ़ज़ाएँ चलती हैं मख़मूर घटाएँ छाती हैं

जब सेहन-ए-चमन में जल्वा-नुमा वो जान-ए-बहाराँ होते हैं

होता है सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर हर ज़ख़्म में लज़्ज़त आती है

ओ नावक-अफ़गन तीर तिरे तस्कीन-ए-रग-ए-जाँ होते हैं

क्यूँ मिन्नत-ए-चारागर कीजे क्यूँ फ़िक्र-ए-दवा-ए-दिल कीजे

बीमार-ए-मोहब्बत के नाले ख़ुद दर्द का दरमाँ होते हैं

ये अहद-ए-जवानी शोख़ी-ए-गुल दो दिन की बहारें होती हैं

देखें तो कभी वो रंग-ए-ख़िज़ाँ जो हुस्न पे नाज़ाँ होते हैं

जब बाद-ए-बहारी आती है हर गुल पे जवानी छाती है

खिल जाते हैं मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर और दाग़ दरख़्शाँ होते हैं

गिर्दाब मुहाफ़िज़ होता है ऐ बहर-ए-हवादिस बेकस का

खिंच आता है साहिल मौजों में जब जोश पे तूफ़ाँ होते हैं

क्या मुझ को ज़रूरत ऐ 'अनवर' क्यूँ उन के सितम का शाकी हूँ

जब याद जफ़ाएँ आती हैं वो ख़ुद ही पशेमाँ होते हैं

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