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आबाद अब न होगा मय-ख़ाना ज़िंदगी का - अनवर सहारनपुरी कविता - Darsaal

आबाद अब न होगा मय-ख़ाना ज़िंदगी का

आबाद अब न होगा मय-ख़ाना ज़िंदगी का

लबरेज़ हो चुका है पैमाना ज़िंदगी का

आ ख़्वाब में किसी दिन ऐ रश्क-ए-माह-ए-ताबाँ

कर दे ज़रा मुनव्वर काशाना ज़िंदगी का

वो ताज़ा दास्ताँ हूँ मरने के बा'द उन को

आएगा याद मेरा अफ़्साना ज़िंदगी का

पर्दा ज़रा उठा दे बाँकी इदारों वाले

अफ़्साना कहने आया दीवाना ज़िंदगी का

उम्मीदें मिट न जाएँ नज़रें न फेर ज़ालिम

बर्बाद कर न मेरा काशाना ज़िंदगी का

है वक़्त-ए-नज़अ' ज़ालिम बालीं पे देख कर

दम तोड़ता है कैसे दीवाना ज़िंदगी का

ख़ून-ए-जिगर बहा कर आँखों से अपनी 'अनवर'

रंगीन कर रहा हूँ अफ़्साना ज़िंदगी का

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