यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
दिल को तस्कीन तिरे लौट के आने से मिली
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खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे
दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
कोई भी पेचीदगी हाएल नहीं अनवर-'सदीद'
ज़मीं का रिज़्क़ हूँ लेकिन नज़र फ़लक पर है
जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
कल शाम परिंदों को उड़ते हुए यूँ देखा
सैल-ए-ज़माँ में डूब गए मशहूर-ए-ज़माना लोग
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
दुख के ताक़ पे शाम ढले
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में