तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
ख़ुशबू है गर तो दिल में सिमट कर कलाम कर
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हद-ए-नज़र से मिरा आसमाँ है पोशीदा
जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
तू भी कर ग़ौर इस कहानी पर
नया शहर
दुश्मन तो मेरे तन से लहू चूसता रहा
कोई भी पेचीदगी हाएल नहीं अनवर-'सदीद'
आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'
दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर