पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
अब उतरेगी रात अनोखी यादों वाली
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अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
एक ख़्वाहिश
उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
ख़्वाबों की तफ़्सील बता कर जाएँगे
कोई भी पेचीदगी हाएल नहीं अनवर-'सदीद'
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
मौसम सर्द हवाओं का
तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
साँसों में मिल गई तिरी साँसों की बास थी