खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
हज़ार भेद छुपा रक्खे थे ख़मोशी में
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उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे
दीवार पर लिखा न पढ़ो और ख़ुश रहो
तू भी कर ग़ौर इस कहानी पर
आरज़ू थी ये बिखेरें अपनी किरनें सुब्ह तक
साँसों में मिल गई तिरी साँसों की बास थी
ज़मीं का रिज़्क़ हूँ लेकिन नज़र फ़लक पर है
सैल-ए-ज़माँ में डूब गए मशहूर-ए-ज़माना लोग