ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
इस ज़मीं पर चाँद सूरज का नुमाइंदा हूँ मैं
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घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर
आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
जो फूल झड़ गए थे जो आँसू बिखर गए
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
सफ़ीना ले गए मौजों की गर्म-जोशी में
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
मौसम सर्द हवाओं का
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं