जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
उस की ताबीर मुझे दिल के जलाने से मिली
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चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
ज़मीं का रिज़्क़ हूँ लेकिन नज़र फ़लक पर है
उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
ख़्वाबों की तफ़्सील बता कर जाएँगे
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
कासा-लेसों ने जो थी नज़्र उतारी तेरी
तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
नया शहर
घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर
मौसम सर्द हवाओं का