हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
जाने किस सम्त से आ जाए सवारी तेरी
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उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
सियाहियों का नगर रौशनी से अट जाए
शिकवा किया ज़माने का तो उस ने ये कहा
पीले पीले चेहरों में उभरी है आज की शाम
तू भी कर ग़ौर इस कहानी पर
दुख के ताक़ पे शाम ढले
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
पँख हिला कर शाम गई है इस आँगन से
अपने दिल की आदत है शहज़ादों वाली
यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला