दम-ए-विसाल तिरी आँच इस तरह आई
कि जैसे आग सुलगने लगे गुलाबों में
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हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
उस की अना के बुत को बड़ा कर के देखते
एक ख़्वाहिश
तलाश जिस को मैं करता फिरा ख़राबों में
नया शहर
जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
आशियानों में न जब लौटे परिंदे तो 'सदीद'
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
मौसम सर्द हवाओं का
तू जिस्म है तो मुझ से लिपट कर कलाम कर