चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
यक़ीं गुमान में गुम है गुमाँ है पोशीदा
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एक ख़्वाहिश
दुख के ताक़ पे शाम ढले
जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी
उस के बग़ैर ज़िंदगी कितनी फ़ुज़ूल है
ख़्वाबों की तफ़्सील बता कर जाएँगे
ख़ाक हूँ लेकिन सरापा नूर है मेरा वजूद
अहद-ए-हाज़िर इक मशीन और उस का कारिंदा हूँ मैं
हम ने हर सम्त बिछा रक्खी हैं आँखें अपनी
खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
ज़ोर से आँधी चली तो बुझ गए सारे चराग़
सफ़ीना ले गए मौजों की गर्म-जोशी में