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आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे - अनवर सदीद कविता - Darsaal

आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे

आरज़ू ने जिस की पोरों तक था सहलाया मुझे

ख़ाक आख़िर कर गया उस चाँद का साया मुझे

घुप-अँधेरे में भी उस का जिस्म था चाँदी का शहर

चाँद जब निकला तो वो सोना नज़र आया मुझे

आँख पर तिनकों की चिलमन होंट पर लोहे का क़ुफ़्ल

ऐ दिल-ए-बे-ख़ानमाँ किस घर में ले आया मुझे

किस क़दर था मुतमइन मैं पेड़ के साए-तले

चाँदनी मुझ पर छिड़क कर तू ने बहकाया मुझे

मैं बिसात-ए-गुल को तरसा उम्र भर 'अनवर-सदीद'

आज फूलों पर लुटा कर क्यूँ है तड़पाया मुझे

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