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उन की महफ़िल में हमेशा से यही देखा रिवाज - अनवर साबरी कविता - Darsaal

उन की महफ़िल में हमेशा से यही देखा रिवाज

उन की महफ़िल में हमेशा से यही देखा रिवाज

आँख से बीमार करते हैं तबस्सुम से इलाज

मैं जो रोया उन की आँखों में भी आँसू आ गए

हुस्न की फ़ितरत में शामिल है मोहब्बत का मिज़ाज

मेरी ख़ातिर ख़ुद उठाते हैं वो तकलीफ़-ए-करम

कौन रखता वर्ना मुझ जैसे गुनहगारों की लाज

मेरे होने और न होने पर ही क्या मौक़ूफ़ है

मौत पर उन की हुकूमत ज़िंदगी पर उन का राज

उफ़ वो आरिज़ जिस के जल्वों पर फ़िदा मेहर-ए-मुबीं

आह वो लब जिन को देते हैं मह ओ अंजुम ख़िराज

मैं हूँ 'अनवर' उन की ज़ात-ए-पाक का अदना ग़ुलाम

है सर-ए-अक़दस पे जिन के रहमत-ए-यज़्दाँ का ताज

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