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रहते हुए क़रीब जुदा हो गए हो तुम - अनवर साबरी कविता - Darsaal

रहते हुए क़रीब जुदा हो गए हो तुम

रहते हुए क़रीब जुदा हो गए हो तुम

बंदा-नवाज़ जैसे ख़ुदा हो गए हो तुम

मजबूरियों को देख के अहल-ए-नियाज़ की

शायान-ए-ए'तिबार-ए-जफ़ा हो गए हो तुम

होता नहीं है कोई किसी का जहाँ रफ़ीक़

उन मंज़िलों में राह-नुमा हो गए हो तुम

तन्हा तुम्हीं हो जिन की मोहब्बत का आसरा

उन बेकसों के दिल की दुआ हो गए हो तुम

दे कर नवेद-ए-नग़्मा-ए-ग़म साज़-ए-इश्क़ को

टूटे हुए दिलों की सदा हो गए हो तुम

'अनवर' गुनाहगार ओ ख़ता-वार ही सही

सर-ताबा-पा अता ही अता हो गए हो तुम

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