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निगाह-ओ-दिल से गुज़री दास्ताँ तक बात जा पहुँची - अनवर साबरी कविता - Darsaal

निगाह-ओ-दिल से गुज़री दास्ताँ तक बात जा पहुँची

निगाह-ओ-दिल से गुज़री दास्ताँ तक बात जा पहुँची

मिरे होंटों से निकली और कहाँ तक बात जा पहुँची

बहे आँसू ज़मीं पर आसमाँ तक बात जा पहुँची

कही ज़र्रों से लेकिन कहकशाँ तक बात जा पहुँची

अभी है इख़्तिलाफ़-ए-जाम-ओ-मीना राज़ की हद तक

न-जाने क्या हो गर पीर-ओ-मुग़ाँ तक बात जा पहुँची

रक़ीबों ने यूँही दा'वा किया था जाँ-निसारी का

मगर मेरी बदौलत इम्तिहाँ तक बात जा पहुँची

समझते थे रहेगी ज़िंदगी महदूद-ए-गुल-बुलबुल

मगर तख़रीब-ए-नज़्म-ए-गुलिस्ताँ तक बात जा पहुँची

छिड़ा था बज़्म में कल तज़्किरा मिज़्गान-ओ-अबरू का

बढ़ी कुछ इस क़दर तेग़-ओ-सिनाँ तक बात जा पहुँची

मआल-ए-जुर्म-ए-तक़्सीम-ए-वतन क्या कम था रोने को

कि अब फ़िक्र-ओ-मलाल-ए-आशियाँ तक बात जा पहुँची

छुपा रखा था जिस को मुद्दतों से दिल में ऐ 'अनवर'

हज़ार अफ़्सोस वह शरह-ओ-बयाँ तक बात जा पहुँची

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