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न तन्हा नस्तरीन ओ नस्तरन से इश्क़ है मुझ को - अनवर साबरी कविता - Darsaal

न तन्हा नस्तरीन ओ नस्तरन से इश्क़ है मुझ को

न तन्हा नस्तरीन ओ नस्तरन से इश्क़ है मुझ को

फ़िदा-कार-ए-चमन हूँ कुल चमन से इश्क़ है मुझ को

उसी की गोद में पलती रही है ज़िंदगी मेरी

मुक़द्दस वादी-ए-गंग-ओ-जमन से इश्क़ है मुझ को

मोहब्बत है अज़ल के दिन से शामिल मेरी फ़ितरत में

बिला तफ़रीक़ शैख़ ओ बरहमन से इश्क़ है मुझ को

अगर चेहरे हों अफ़्सुर्दा तो जीने का मज़ा क्या है

उरूस-ए-ज़िंदगी के बाँकपन से इश्क़ है मुझ को

समझता हूँ उसे भी एक मंज़िल राह-ए-हिम्मत की

पुराना हल्क़ा-ए-दार-ओ-रसन से इश्क़ है मुझ को

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