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लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद - अनवर साबरी कविता - Darsaal

लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद

लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद

कोई आया ही नहीं आबला-पा मेरे बाद

मेरे दम तक ही रहा रब्त-ए-नसीम ओ रुख़-ए-गुल

निकहत-आमेज़ नहीं मौज-ए-सबा मेरे बाद

अब न वो रंग-ए-जबीं है न बहार-ए-आरिज़

लाला-रूयों का अजब हाल हुआ मेरे बाद

चंद सूखे हुए पत्ते हैं चमन में रक़्साँ

हाए बेगानगी-ए-आब-ओ-हवा मेरे बाद

मुँह धुलाती नहीं ग़ुंचों का उरूस-ए-शबनम

गर्द-आलूद है कलियों की क़बा मेरे बाद

आदमिय्यत-शिकनी भी तो नहीं कम 'अनवर'

डर है कुछ और न हो इस के सिवा मेरे बाद

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