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एहसास की रगों में उतरने लगा है वो - अनवर मीनाई कविता - Darsaal

एहसास की रगों में उतरने लगा है वो

एहसास की रगों में उतरने लगा है वो

अब बूँद बूँद मुझ में बिखरने लगा है वो

गुमनामियों की अंधी गुफाएँ हों नौहा-ख़्वाँ

मानिंद-ए-आफ़्ताब उभरने लगा है वो

कैसे कहूँ कि ग़म हुआ ख़्वाबों की भीड़ में

ज़ख़्मों का इंदिमाल तो करने लगा है वो

इक हर्फ़-ए-आतिशीं भी नहीं उस के होंट पर

लगता है लहज़ा लहज़ा ठिठुरने लगा है वो

इम्कान की हदों से गुज़रने के बअ'द क्यूँ

अब रेज़ा रेज़ा हो के बिखरने लगा है वो

उतरा था मेरी रूह के रौज़न से जो कभी

घुट घुट के मेरे जिस्म में मरने लगा है वो

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