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सोचना रूह में काँटे से बिछाए रखना - अनवर मसूद कविता - Darsaal

सोचना रूह में काँटे से बिछाए रखना

सोचना रूह में काँटे से बिछाए रखना

ये भी क्या साँस की तलवार बनाए रखना

अब तो ये रस्म है ख़ुश्बू के क़सीदे पढ़ना

फूल गुल-दान में काग़ज़ के सजाए रखना

तीरगी टूट पड़े भी तो बुरा मत कहियो

हो सके गर तो चराग़ों को जलाए रखना

राह में भीड़ भी पड़ती है अभी से सुन लो

हाथ से हाथ मिला है तो मिलाए रखना

कितना आसान है ताईद की ख़ू कर लेना

कितना दुश्वार है अपनी कोई राय रखना

कोई तख़्लीक़ भी तकमील न पाए मिरी

नज़्म लिख लूँ तो मुझे नाम न आए रखना

अपनी परछाईं से मुँह मोड़ न लेना 'अनवर'

तुम उसे आज भी बातों में लगाए रखना

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