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पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी - अनवर मसूद कविता - Darsaal

पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी

पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी

बिजली ने घटाओं पे जो तहरीर लिखी थी

इस शहर के दीवार-ओ-दर आसेब-ज़दा थे

गलियों में भी ता-हद्द-ए-नज़र बर्फ़ जमी थी

चुप साध के बैठे थे सभी लोग वहाँ पर

पर्दे पे जो तस्वीर थी कुछ बोल रही थी

लहराते हुए आए थे वो अम्न का परचम

परचम को उठाए हुए नेज़े की अनी थी

डूबे हुए तारों पे मैं क्या अश्क बहाता

चढ़ते हुए सूरज से मिरी आँख लड़ी थी

इस वक़्त वहाँ कौन धुआँ देखने जाए

अख़बार में पढ़ लेंगे कहाँ आग लगी थी

शबनम की तराविश से भी दुखता था दिल-ए-ज़ार

घनघोर घटाओं को बरसने की पड़ी थी

मैं रात तड़पता ही रहा वक़्फ़ा-ब-वक़्फ़ा

पाज़ेब तिरी याद की थम थम के बजी थी

तुम ने न सुनी अदल की ज़ंजीर की आवाज़

मैं ने तो ख़मोशी की भी फ़रियाद सुनी थी

पलकों के सितारे भी उड़ा ले गई 'अनवर'

वो दर्द की आँधी की सर-ए-शाम चली थी

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