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कैसी कैसी आयतें मस्तूर हैं नुक़्ते के बीच - अनवर मसूद कविता - Darsaal

कैसी कैसी आयतें मस्तूर हैं नुक़्ते के बीच

कैसी कैसी आयतें मस्तूर हैं नुक़्ते के बीच

क्या घने जंगल छुपे बैठे हैं इक दाने के बीच

रफ़्ता रफ़्ता रख़्ना रख़्ना हो गई मिट्टी की गेंद

अब ख़लीजों के सिवा क्या रह गया नक़्शे के बीच

मैं तो बाहर के मनाज़िर से अभी फ़ारिग़ नहीं

क्या ख़बर है कौन से असरार हैं पर्दे के बीच

ऐ दिल-ए-नादाँ किसी का रूठना मत याद कर

आन टपकेगा कोई आँसू भी इस झगड़े के बीच

सारे अख़बारों में देखूँ हाल अपने बुर्ज का

अब मुलाक़ात उस से होगी कौन से हफ़्ते के बीच

मैं ने 'अनवर' इस लिए बाँधी कलाई पर घड़ी

वक़्त पूछेंगे कई मज़दूर भी रस्ते के बीच

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