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दुनिया भी अजब क़ाफ़िला-ए-तिश्ना-लबाँ है - अनवर मसूद कविता - Darsaal

दुनिया भी अजब क़ाफ़िला-ए-तिश्ना-लबाँ है

दुनिया भी अजब क़ाफ़िला-ए-तिश्ना-लबाँ है

हर शख़्स सराबों के तआ'क़ुब में रवाँ है

तन्हा तिरी महफ़िल में नहीं हूँ कि मिरे साथ

इक लज़्ज़त-ए-पाबंदी-ए-इज़हार-ओ-बयाँ है

हक़ बात पे है ज़हर भरे जाम की ताज़ीर

ऐ ग़ैरत-ए-ईमाँ लब-ए-सुक़रात कहाँ है

खेतों में समाती नहीं फूली हुई सरसों

बाग़ों में अभी तक वही हंगाम-ए-ख़िज़ाँ है

एहसास मिरा हिज्र-गज़ीदा है अज़ल से

क्या मुझ को अगर कोई क़रीब-ए-रग-ए-जाँ है

जो दल के समुंदर से उभरता है यक़ीं है

जो ज़ेहन के साहिल से गुज़रता है गुमाँ है

फूलों पे घटाओं के तो साए नहीं 'अनवर'

आवारा-ए-गुलज़ार नशेमन का धुआँ है

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