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दरमियाँ गर न तिरा वादा-ए-फ़र्दा होता - अनवर मसूद कविता - Darsaal

दरमियाँ गर न तिरा वादा-ए-फ़र्दा होता

दरमियाँ गर न तिरा वादा-ए-फ़र्दा होता

किस को मंज़ूर ये ज़हर-ए-ग़म-ए-दुनिया होता

क्या क़यामत है कि अब मैं भी नहीं वो भी नहीं

देखना था तो उसे दूर से देखा होता

कासा-ऐ-ज़ख़्म-तलब ले के चला हूँ ख़ाली

संग-रेज़ा ही कोई आप ने फेंका होता

फ़ल्सफ़ा सर-ब-गरेबाँ है बड़ी मुद्दत से

कुछ न होता तो ख़ुदा जाने कि फिर क्या होता

हम भी नौ-ख़ेज़ शुआ'ओं की बलाएँ लेते

अपने ज़िंदाँ में अगर कोई दरीचा होता

आप ने हाल-ए-दिल-ए-ज़ार तो पूछा लेकिन

पूछना था तो कोई उस का मुदावा होता

दस्त-ए-मुफ़्लिस से तही-तर है सफ़ीना 'अनवर'

इस पहुँचने से तो साहिल पे न पहुँचा होता

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