दिल में वीरानियाँ सिसकती हैं
दिल में वीरानियाँ सिसकती हैं
कैसी रूहें यहाँ भटकती हैं
ये तआ'क़ुब में कौन आता है
किस की परछाइयाँ लपकती हैं
रौनक़ें जंगलों में गिर्या-कुनाँ
शहर में आँधियाँ बिलकती हैं
आसमाँ टूट कर नहीं गिरता
बिजलियाँ रात-भर कड़कती हैं
इश्क़ आसेब हो गया जैसे
ख़्वाहिशें ज़हर बन के पकती हैं
गुम हुए क़ाफ़िले तमन्ना के
मंज़िलें रास्तों को तकती हैं
दिल में रुकती नहीं तिरी यादें
नोक-ए-मिज़्गाँ से आ टपकती हैं
ख़ौफ़ आता है जागने से हमें
वर्ना आँखें कहाँ झपकती हैं
(1916) Peoples Rate This