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ज़िंदगी अपनी ख़्वाब जैसी है - अनवर जमाल अनवर कविता - Darsaal

ज़िंदगी अपनी ख़्वाब जैसी है

ज़िंदगी अपनी ख़्वाब जैसी है

ख़ूब-रू बे-नक़ाब जैसी है

सेहन-ए-गुलशन में आप की हस्ती

शाख़ पर एक गुलाब जैसी है

कभी डूबी है और कभी उभरी

आशिक़ी भी हुबाब जैसी है

होश में रह के भी है बे-होशी

ज़ीस्त अपनी शराब जैसी है

उन की शोख़ी तो है बहार-ए-चमन

सादगी महव-ए-ख़्वाब जैसी है

है करिश्मा ये उन की आँखों का

ख़ामुशी भी ख़िताब जैसी है

गुज़रे लम्हों के साथ साथ 'अनवर'

ज़िंदगी इंक़लाब जैसी है

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