ज़माना उफ़ ये कैसा हो रहा है
ज़माना उफ़ ये कैसा हो रहा है
जो सीधा था वो उल्टा हो रहा है
अब अहल-ए-इल्म में तारीकियाँ हैं
जहालत में सवेरा हो रहा है
वहाँ पर ज़िंदगी कैसे बचेगी
जहाँ क़ातिल मसीहा हो रहा है
बशर का मक़्सद-ए-तख़्लीक़ देखो
उसे होना था क्या क्या हो रहा है
ये है तक़लीद-ए-मग़रिब का नतीजा
जुदा मुस्लिम से पर्दा हो रहा है
हमारी रास्त-गोई काम आई
वफ़ा होना था वा'दा हो रहा है
जमाल-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न का तेरे 'अनवर'
सुख़न-दानों में चर्चा हो रहा है
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