सभी के अपने मसाइल सभी की अपनी अना
पुकारूँ किस को जो दे साथ उम्र भर मेरा
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मैं हर बे-जान हर्फ़-ओ-लफ़्ज़ को गोया बनाता हूँ
कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िंदगी क्या है
मैं ने लिख्खा है उसे मर्यम ओ सीता की तरह
न जाने क्यूँ अधूरी ही मुझे तस्वीर जचती है
अब नाम नहीं काम का क़ाएल है ज़माना
मुसलसल धूप में चलना चराग़ों की तरह जलना
चाहो तो मिरी आँखों को आईना बना लो
ज़ुल्फ़ को अब्र का टुकड़ा नहीं लिख्खा मैं ने
मेरा हर शेर हक़ीक़त की है ज़िंदा तस्वीर
शादाब-ओ-शगुफ़्ता कोई गुलशन न मिलेगा
पराया कौन है और कौन अपना सब भुला देंगे