बातें पागल हो जाती हैं
मेरी बंद गली के सारे घर
कितने अजीब से लगते हैं
मेहराबी दरवाज़े
जैसे मालीख़ोलिया की बीमारी में
धीरे धीरे मरते शख़्स की
कीच-भरी आँखें हूँ
आगे बढ़ी हुई बलकोनियाँ
जैसे अहमक़ और हवन्नक़ लोगों की
लटकी हुई थोड़ियाँ होती हैं
इक दूजे में उलझे
बैठक आँगन सोने वाले कमरे
और रसोईयाँ
सारा यूँ लगता है
जैसे इक पागल की गुंजल सोचें हों
उन के अंदर रहने वाले
जैसे
मैं भी क्या पागल हूँ
क्या क्या सोचता रहता हूँ
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