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शिकस्ता-पा ही सही दूर की सदा ही सही - अनवार फ़िरोज़ कविता - Darsaal

शिकस्ता-पा ही सही दूर की सदा ही सही

शिकस्ता-पा ही सही दूर की सदा ही सही

बिखर गया जो हवा से वो नक़्श-ए-पा ही सही

ये हुक्म है कि गए मौसमों को याद करूँ

नई रुतों का तजस्सुस मुझे मिला ही सही

ज़मीं के ब'अद अभी आसमाँ के दुख भी सहूँ

मिरे लिए ये सज़ा है बड़ी अता ही सही

चराग़ कह के मिरा नूर मुझ से छीन लिया

चराग़ फिर भी रहूँगा बुझा हुआ ही सही

सजा लिए हैं मसाइब के नीर आँखों में

सुकूँ की नींद नहीं है तो रतजगा ही सही

ऐ धड़कनों को नया नूर बख़्शने वाले

मैं नूर से ही तही तू मिरी ख़ता ही सही

हक़ीक़तों के बदन पर कोई लबादा नहीं

अगर ये सच की सज़ा है तो फिर सज़ा ही सही

ये दिल का कर्ब लबों तक कभी न आएगा

मिरे लिए ये ख़मोशी का इर्तिक़ा ही सही

जहाँ के दर्द को 'अनवार' ने समेट लिया

मैं इक ख़ुशी की तमन्ना में मर-मिटा ही सही

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