उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
आग दिल में दबाए बैठे हैं
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फेंकिए क्यूँ मय-ए-नाक़िस साक़ी
शर्म भी इक तरह की चोरी है
आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ
क़ामत ही लिखा हम ने सदा जा-ए-क़यामत
मिरी नुमूद से पैदा है रंग-ए-नाकामी
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
बे-तरह पड़ती है नज़र उन की
कमर बाँधी है तौबा तोड़ने पर
मोहब्बत हो तो बर्क़-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
हर शय को इंतिहा है यक़ीं है कि वस्ल हो
अल्लाह-रे फ़र्त-ए-शौक़-ए-असीरी के शौक़ में
हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का