शर्म भी इक तरह की चोरी है
वो बदन को चुराए बैठे हैं
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थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
नींद का काम गरचे आना है
नज़र आए क्या मुझ से फ़ानी की सूरत
अश्क बेताब व निगह बे-बाक व चश्म-ए-तर ख़राब
उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
देखा जो मर्ग तो मरना ज़ियाँ न था
क़ामत ही लिखा हम ने सदा जा-ए-क़यामत
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से
हो रहा है टुकड़े टुकड़े दिल मेरे ग़म-ख़्वार का
है भी और फिर नज़र नहीं आती