न मैं समझा न आप आए कहीं से
पसीना पोछिए अपनी जबीं से
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उन से हम लौ लगाए बैठे हैं
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
मिट्टी ख़राब है तिरे कूचे में वर्ना हम
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
सूरत छुपाइए किसी सूरत-परस्त से
नाकामी-ए-विसाल का पैग़ाम है मुझे
आँखें दिखाईं ग़ैर को मेरी ख़ता के साथ
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
मैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ छुट के जाऊँगा कहाँ
कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'