कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
ये भी इक बे-ख़बरी थी कि ख़बर-दार रहा
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मैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ छुट के जाऊँगा कहाँ
पी भी जा शैख़ कि साक़ी की इनायत है शराब
न मैं समझा न आप आए कहीं से
हश्र को मानता हूँ बे-देखे
अल्लाह-रे फ़र्त-ए-शौक़-ए-असीरी के शौक़ में
गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा
कैसी हया कहाँ की वफ़ा पास-ए-ख़ल्क़ क्या
वो जो गर्दन झुकाए बैठे हैं
बे-तरह पड़ती है नज़र उन की